आजकल के बच्चे भी बड़े बद्तमीज़ हो गए हैं। बड़ों का तो लिहाज़ ही नहीं रहा बिल्कुल। ज़बान तो कोरोना केसेज़ की तरह दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। बताइये ज़रा, आज सुबह मेरा 12 साल का बेटा मुझसे बहस लड़ा रहा था। पढ़ाई-लिखाई तो कुछ हो नहीं रही। ऑनलाइन क्लास के लिये अपना मोबाइल देकर जरा देर के लिये बाहर गया था, वापस आकर देखा तो लूडो खेल रहा है। पूछने पर कहने लगा कि पापा नेट चल ही नहीं रहा था।
“हाँ तो बैठके लूडो खेलोगे.? किताब-कॉपी कहाँ हैं तुम्हारी?”
“मम्मी ने सब उठाके ऊपर रख दिया।”
मैंने आँखें निकालकर पत्नी जी को देखा, उन्होंने मुझसे बड़ी आँखें निकाल लीं और तुनककर बोलीं, “और नहीं तो क्या जी, सब पढ़ाई तो मोबाइल से हो रही है। तो धर दिया उठाके बर्जे पे।”
पाला कमज़ोर पड़ने पर मैं वापस बच्चे की तरफ़ मुड़ा, “तो सुबह से ये दुकान लगाके बैठ गए? पिछले तीन घन्टों से देख रहा हूँ, सारा कबाड़ निकाल के फैला दिया घर में, तीन घन्टे वेस्ट कर दिये ना दिन के! तुम्हारा ठीक है बेटा! सुबह उठे और खा-पीके दुकान सजा के बैठ गए। खेलकूद में ही सारा दिन निकल जा रहा है। सारा दिन बर्बाद कर दोगे ऐसे ही।”
“अच्छा पापा, आप खेलकूद करते हैं?”
“कौन हम, अरे हम क्यों खेल-कूद करने लगे। हम क्या कोई बच्चे हैं?”
“अच्छा दिल से कितनी बार हँसते हैं दिनभर में?”
“हुँह, कॉर्पोरेट सेक्टर में दिल खोलकर हँसने की मनाही होती है। हम मुस्कुरा कर गला काटते हैं।”
“हीहीही। और घूमना-फिरना?”
“हाँ, वो तो कंपनी भेजती है अपने ख़र्चे पे, अपने काम से।”
“फिर तो वहाँ भी आप कंपनी के कामों में उलझे रहते होंगे। मज़ा कहाँ आता होगा?”
“हाँ तो और क्या, कंपनी क्या फ़िज़ूल में सैर-सपाटे के लिये भेजेगी?”
“तो पापा, दिन मेरा नहीं ख़राब होता। दिन तो आपका ख़राब हो रहा है। ऐसे ही धीरे-धीरे सारी ज़िंदगी निकल जायेगी। टाइम तो आप भी वेस्ट ही कर रहे हैं पापा!”
ऐसे जवाब की मुझे उम्मीद नहीं थी, मेरा हौसला पस्त हो गया। झुंझलाहट में मैंने उसे लपककर पकड़ने की कोशिश की तो हँसते हुए बाहर भाग गया।
मैंने श्रीमती जी को शिकायती नज़रों से देखा। वो भी पल्लू से मुँह दबा के किचन में सरक गईं।