Image default

किस्से चचा चकल्लस शहरयार के!!

– २ –

“चचा पहले भी ऐसा ही होता था क्या ?” छोटू जो बहुत देर से अपनी निक्कर को ऊपर खींच रहा था, बोला | “अमां नहीं वो दिन तो बहुत ही सुकून भरे थे, मियाँ“ चचा मंद-मंद मुसकुराते हुये बोले । एक दस साल के लौण्डे के भी यार थे चचा इसी लिये तो “शहरयार” का ख़िताब उन्हें अता किया था जनता जनार्दन ने ।

“भई, क्या लल्लनटॉप ज़माना था वो,” चचा अपनी रौ में बहने लगे ।

“ जब करोना नहीं था तब रोना नहीं था । देखते थे ख़्वाब सब बस सोना नहीं था ।।

रोशनी थी जग मग तब इन उजालों की । आंधेरों के वास्ते कोई कोना नहीं था ।।

जब करोना नहीं था तब रोना नहीं था…”

“वाह वाह चचा क्या बात है!“ बाबू भाई के साथ सभी लोग चहक के बोले । “चचा इरशाद इरशाद” चौबे जी यह कहते-कहते उछल पड़े , ”सही पकड़े हैं चचा; चरखी बना दीजिये इस ससुर के नाती की“ ये कह के उन्होंने अपनी एक आँख दबा दी । अब तो सभी ने चचा की दुखती रग दबा दी थी ।

हाँ एक ज़माने में चचा चकल्लस शहर में होने वाले हर मुशायरे में ज़रूर शिरकत किया करते थे ओर कोई भी महफ़िल बिना उनके अधूरी होती थी। हालांकि थोड़ा-बहुत वो अब भी गुनगुना लिया करते थे लेकिन लोगों की मशरुफ़ियत और अनमनापन अब उन्हें सालता था। सब के इतने इसरार पे चचा भी तरुन्नुम में आ गये…

“जब करोना नहीं था तब रोना नहीं था…

आस थी हर आस को प्यासे मन के वास्ते । चलते थे सब साथ तब एक दूजे के वास्ते ।।

मंज़िलों की खातिर तब बढ़ते थे कदम “तन्हा” । काम था हर हाथ को कुछ खोना नहीं था ।।

जब करोना नहीं था तब रोना नहीं था…“

“वाह-वाह वाह-वाह । छा गये गुरु !!“ पीछे से आई इस आवाज़ को सुन के सब लोग आश्चर्यचकित हो के घूम के उस ओर देखने लगे॥

 

अभी जारी है …

पसंद आया तो कीजिए लाइक और शेयर!

आप इसे भी पढ़ना पसंद करेंगे

तालाब एक दलदल है : सत्यदीप त्रिवेदी की लिखी

SatyaaDeep Trivedi

होनी : समीर रावल की लिखी

Sameer Rawal

ज़ीरो : कहानी सत्यदीप त्रिवेदी की लिखी

SatyaaDeep Trivedi

उम्मीद की किरण : डिम्पल अनमोल रस्तोगी की लिखी

Dimple Anmol Rastogi

एनकाउंटर : कहानी सत्यदीप त्रिवेदी की लिखी

SatyaaDeep Trivedi

कोरोना_काले_कथा

SatyaaDeep Trivedi